Uttarakhand News: हिमालय में खतरनाक होते आइसटोपी, वैज्ञानिकों ने दी चेतावनी

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आइसटोपी

आइसटोपी

उत्तराखंड समेत पूरे हिमालयी क्षेत्र में आइसटोपी तेजी से खतरा बनकर उभर रही हैं। देहरादून में ग्राफिक एरा यूनिवर्सिटी में आयोजित अंतरराष्ट्रीय आपदा प्रबंधन सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने बताया कि जलवायु परिवर्तन के कारण पिछले कुछ वर्षों में आइसटोपी की संख्या और आकार में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है। ये आइसटोपी बरसात के मौसम में भारी बारिश के दौरान बड़े स्तर की तबाही का कारण बन रही हैं।

सम्मेलन में वाडिया इंस्टीट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. राकेश भांबरी ने सिक्किम और उत्तराखंड के ग्लेशियरों पर किए गए अपने अध्ययन प्रस्तुत किए। उन्होंने बताया कि सिक्किम में 23 ग्लेशियरों का 5.4 प्रतिशत हिस्सा पिछले कुछ वर्षों में समाप्त हो चुका है, जबकि ग्लेशियर झीलों का क्षेत्रफल 48 प्रतिशत तक बढ़ा है। वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि ग्लेशियरों के ऊपर जमा मोटा मलबा—जिसे आइसटोपी कहा जाता है—बरसात में अत्यधिक खतरनाक हो जाता है।

डॉ. भांबरी ने मेरु बमक ग्लेशियर की रिपोर्ट साझा की, जिसमें पाया गया कि कुछ ही वर्षों के भीतर ग्लेशियर के पिघलने से भारी मलबा जमा हुआ और बारिश के दौरान यह तेज गति से नीचे आकर विनाशकारी स्थितियां उत्पन्न करता रहा। उन्होंने चौराबाड़ी ग्लेशियर और केदारनाथ आपदा का भी उदाहरण दिया।

वाडिया इंस्टीट्यूट की वैज्ञानिक डॉ. स्वप्नमिता विदेश्वरम ने धराली आपदा पर अपना अध्ययन प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि क्षेत्र में क्रोनिक लैंडस्लाइड ज़ोन, कई खतरनाक चैनल और ग्लेशियर के दो कैचमेंट क्षेत्र थे, जहाँ छोटे-छोटे आइस कोर जमा थे। ये आइस कोर 4700 मीटर की ऊंचाई पर मोरेन मास कोलैप्स के साथ बड़े पैमाने की तबाही का कारण बने।

ये आए प्रमुख वैज्ञानिक सुझाव:

पहाड़ों की सुरक्षित–असुरक्षित ढलानों और हिमनदियों की आधुनिक जियो-मैपिंग की जाए।

ऊंचाई वाले क्षेत्रों में मौसम रिकॉर्डिंग सिस्टम और नदी मॉनिटरिंग सेंसर लगाए जाएं।

आपदा की श्रृंखला—ग्लेशियर कमजोर पड़ना, बारिश, भूस्खलन और नदी में मलबा बढ़ना—की समग्र समझ विकसित की जाए ताकि समय रहते चेतावनी दी जा सके।

यह शोध हिमालय में बढ़ते जोखिमों के प्रति गंभीर संकेत देता है और समय रहते वैज्ञानिक निगरानी तथा नीति-स्तरीय हस्तक्षेप की आवश्यकता बताता है।

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