इंद्रमणि बडोनी ने क्यों कहा था दिवाकर भट्ट को ‘उत्तराखंड फील्ड मार्शल’? संघर्ष की वो कहानी जो आज भी प्रेरणा देती है

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दिवाकर भट्ट

दिवाकर भट्ट

उत्तराखंड आंदोलन के सबसे तेजस्वी और जुझारू चेहरों में शामिल दिवाकर भट्ट को ‘उत्तराखंड फील्ड मार्शल’ की उपाधि यूं ही नहीं दी गई थी। 1993 में श्रीनगर में आयोजित उत्तराखंड क्रांति दल के अधिवेशन में इंद्रमणि बडोनी ने उनके साहस, तेवर और आंदोलन के प्रति पूर्ण समर्पण को देखकर यह सम्मान प्रदान किया था। भट्ट के निधन के बाद आज पूरा राज्य उन्हें उनके उसी अदम्य संघर्ष के लिए याद कर रहा है।

दिवाकर भट्ट का आंदोलनकारी सफर लंबे संघर्षों और दृढ़ संकल्प से भरा रहा। 1965 में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रताप सिंह नेगी की अगुवाई में श्रीनगर में पहली बार वह उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े। यही वह दौर था, जब पहाड़ की समस्याओं, पलायन और अधिकारों के मुद्दों ने उनके जीवन की दिशा तय की।

1976 में उन्होंने ‘उत्तराखंड युवा मोर्चा’ का गठन किया, जिसने आगे चलकर राज्य आंदोलन को नई गति दी। इसी वर्ष वह बदरीनाथ से दिल्ली तक निकली ऐतिहासिक पदयात्रा में भी शामिल रहे। 1980 के दशक में राजनीति में सक्रिय होते हुए वह तीन बार कीर्तिनगर ब्लॉक प्रमुख बने और पहली बार देवप्रयाग से यूकेडी के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ा।

उनके संघर्ष का सबसे बड़ा अध्याय 1995 का श्रीयंत्र टापू आंदोलन और उसका विस्तार—खैट पर्वत उपवास—रहा। 15 सितंबर 1995 को वह 80 वर्षीय सुंदर सिंह के साथ 3200 मीटर ऊंचे खैट पर्वत पर उपवास पर बैठे। खराब हालात में प्रशासन भी वहां पहुंचने में असमर्थ हो गया था। स्थिति बिगड़ती देख 15 दिसंबर को केंद्र सरकार ने उन्हें दिल्ली वार्ता के लिए बुलाया। समाधान न मिलने पर वह कई दिनों तक जंतर-मंतर पर भी उपवास करते रहे।

1994 में नैनीताल और पौड़ी में उनके नेतृत्व में बड़े आंदोलन हुए, जिनमें हिल कैडर लागू करने, आरक्षण को क्षेत्रफल आधारित करने, पर्वतीय युवाओं के लिए केंद्रीय सेवाओं में 2% आरक्षण और वन कानूनों में संशोधन जैसी मांगें प्रमुख थीं। उनका नारा ‘घेरा डालो—डेरा डालो’ आंदोलन की पहचान बन गया।

2007 में वह देवप्रयाग से विधायक बने और राज्य सरकार में मंत्री भी रहे, लेकिन पहाड़ से हो रहे पलायन और लोगों के अधिकारों की लड़ाई उनके राजनीतिक जीवन का केंद्र बनी रही।

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