उत्तराखंड में रम्माण उत्सव एक विशेष महत्त्व, यूनेस्को ने भी माना विश्व धरोहर

उत्तराखंड की लोक संस्कृति और धार्मिक परंपराओं में रम्माण उत्सव एक विशेष स्थान रखता है। चमोली जिले के पैनखंड क्षेत्र के सलूड़-डुंग्रा गांव में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला यह आयोजन धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। यह अपनी विशिष्ट नाट्य शैली और मुखौटों के लिए प्रसिद्ध है। यूनेस्को ने वर्ष 2009 में इसे विश्व धरोहर का दर्जा प्रदान किया था। इस मेले को देखने के लिए हर साल दूर-दूर से लोग आते हैं।
इस वर्ष भी इसका भव्य आयोजन किया जाएगा, जिसके लिए जिला प्रशासन ने तैयारियां तेज कर दी हैं। चमोली जिले के सलूड़-डुंग्रा गांव में विश्व धरोहर रम्माण मेले के आयोजन को लेकर प्रशासन सक्रिय हो गया है। जिलाधिकारी संदीप तिवारी ने जिला स्तरीय अधिकारियों के साथ बैठक कर आयोजन को भव्य बनाने के निर्देश दिए।
उन्होंने पर्यटन अधिकारी बृजेंद्र पांडे को आयोजन स्थल को फूलों और लाइट से सजाने और दर्शकों के बैठने की समुचित व्यवस्था करने के आदेश दिए। इसके अलावा, मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचार-प्रसार करने के लिए यूट्यूबर्स और ब्लॉगर्स को आमंत्रित करने की योजना भी बनाई गई है। रम्माण मेला सलूड़-डुंग्रा गांव की पुरानी परंपरा का हिस्सा है।
कब लगता है ये मेला
यह वैशाख माह में आयोजित किया जाता है और बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने से पहले संपन्न होता है। इस मेले में रामायण पाठ किया जाता है, लेकिन यह संवाद रहित होता है। इसमें गीत, ढोल, ताल और मुखौटा शैली के माध्यम से रामायण का मंचन किया जाता है। भूमियाल देवता मंदिर के प्रांगण में आयोजित इस मेले में राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान के पात्र ढोल-दमाऊ की थाप पर नृत्य करते हैं।
राम जन्म, सीता स्वयंवर, वन गमन, सीता हरण, हनुमान मिलन और लंका दहन जैसे प्रसंगों का जीवंत मंचन किया जाता है। इस दौरान उपयोग किए जाने वाले मुखौटे भोजपत्र से बनाए जाते हैं, जो इसे एक अलग पहचान देते हैं। रम्माण में 18 मुखौटे, 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊं और 8 भंकोरे का प्रयोग किया जाता है। यह उत्सव 10 से 15 दिनों तक चलता है, जिसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन और मेले का आयोजन किया जाता है।
इस सूची में भी शामिल
रम्माण उत्सव को 2009 में यूनेस्को की ओर से अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल किया गया। इसके बाद से इसका प्रचार-प्रसार और संरक्षण तेजी से किया जा रहा है। उत्तराखंड राज्य के निर्माण के बाद 2016 में इसे गणतंत्र दिवस परेड में भी शामिल किया गया, जिससे इसे राष्ट्रीय पहचान मिली। ये केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि उत्तराखंड की लोक-कला और संस्कृति को जीवंत बनाए रखने का एक माध्यम भी है।
यह आयोजन जहां स्थानीय लोगों की आस्था को संजोए हुए है, वहीं विश्व धरोहर होने के कारण देश और दुनिया के पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इस वर्ष के आयोजन को और अधिक भव्य बनाने के लिए जिला प्रशासन ने प्रचार-प्रसार पर विशेष ध्यान दिया है।